विस्तार : सीक्रेट ऑफ डार्कनेस (भाग : 18)
ब्रह्मेश गिरता चला जा रहा था, वह पहाड़ी की ढ़लान पर लुढ़कते हुए सतह से टकराने ही वाला था कि अचानक वहां की बर्फ हटती चली गयी। ब्रह्मेश अब स्वयं को घने अंधेरे में तैरता हुआ महसूस कर रहा था। उसकी आँखों के सामने कई टिमटिमाते तारे झिलमिलाए, अचानक उसने स्वयं को अपना होश खोता हुआ महसूस किया। जब उसकी आँखें खुली तो एक अलग ही दुनिया में मौजूद था, वहां के नजारों ने उसे मंत्रमुग्ध कर दिया, वह अपनी आंखों को मलते हुए उठकर अपने आसपास के दृश्यों को देखने में खो गया।
खूब लम्बे, धूसर रंग के मोटे तनों वाले लहलहाते पेड़, उन पेड़ो से गुलाबी रंग की लताये लिपटी हुई थी, जिनकी पत्तियां भी गुलाबी ही थी। उनपर खिलकर लदे हुए लाल रंग के फूल जलती हुई आग के समान प्रतीत हो रहे थे। पत्तियों का रंग मनमोहक नीला था, हल्की हवा में पेड़ ऐसे झूम रहे थे जैसे मन्द-मंद मुस्कुराते हुए नृत्य कर रहे हों। ठंडी हवाओं का शोर, माँ की मीठी लोरी प्रतीत हो रहा था। ब्रह्मेश की आँखों ने जब यह देखा तो उसे दिव्य अनुभूति प्राप्त हुई, उसे लगा मानो वह स्वर्ग में आ गया हो या कोई बड़ा ही सुंदर स्वप्न देख रहा है। उसे अपने जीवित अथवा जागृत अवस्था में होने पर संदेह होने लगा, उसने अपने शरीर को थपथपाते हुए यह निश्चित किया कि यह कोई सुंदर स्वप्न या स्वर्ग नही है, वह यहां सशरीर उपस्थित है।
ब्रह्मेश उठते हुए चारों ओर देखने लगा, पास ही उसे एक विशाल महल नजर आया। उस महल में गजब का आकर्षण था ब्रह्मेश उसकी ओर खींचता ही चला गया। महल के चारो ओर एक पतली नदी थी जो उस महल को एक संकरे मार्ग को छोड़कर, वृत की आकृति में घेरे हुए थे। आश्चर्य की बात तो यह थी कि नदी के घेरे के बीच जो मार्ग था वह बहुत अधिक संकरा था, देखा जाए तो यह नदी इस मार्ग को आसानी से ध्वस्त कर सकती थी, जबकि नदी के वृत आकृति को छोड़कर दोनों ओर से एक सीध में थे। यह ओमेगा की आकृति बनाते हुए प्रतीत होता था।
ब्रह्मेश ने जब महल को देखा तो उसकी खूबसूरती को बस देखता ही रह गया। यकीनन यह कोई अन्य लोक ही था, बहुमूल्य काले पत्थरों से बना हुआ यह चमकता हुआ किला, ऊपर से उसकी नक्काशी को इतने महीनता से उकेरा गया था कि उसकी कल्पना करना भी सम्भव नही था, एक एक तार को बड़े स्पष्टता से दर्शाया गया था इन पत्थरों के ऊपर, देखने से यह पत्थर अत्यधिक कठोर प्रतीत हो रहे थे इनपर नक्काशी करना पानी में आग लगाने से भी कठिन कार्य था, जो किसी कलाकार ने कर दिया वो भी इतनी खूबसूरती से की देखने वाला सबकुछ खोकर बस उसे ही देखता रह जाये।
ब्रह्मेश उसकी ओर बढ़ता ही गया, मुख्य द्वार के दोनों ओर हाथ में कलश से जल गिराती हुई स्त्रियों की तस्वीर बनी हुई थी। मुख्य द्वार के ऊपर एक बड़ा सा ओमेगा चिन्ह बना हुआ था, ब्रह्मेश एक-एक चीज को बड़े गौर से देख रहा था, दरवाजे पर हल्का जोर देते ही वह चर्रर की धीमी आवाज के साथ खुल गया।
किले का द्वार खुलते ही वह एक विशाल कक्ष में पहुँच गया, यह कक्ष सुंदरता से नक्काशे गए स्तम्भों पर टिका हुआ था, कक्ष की दीवारों पर स्याह रंग में बहुत ही खूबसूरत चित्र बनाये हुए थे। एक ओर की दीवार पर एक विचित्र पक्षी, दूसरी ओर एक धूमिल सा चित्र था जो शायद किसी शस्त्र को पकड़े हुए मानवाकृति का था। छत पर एक गोलाई में बड़ा सा ओमेगा चिन्ह बना हुआ था। स्तम्भो पर भी न समझ आने वाली बेहद खूबसूरत खाँचे काटे गए थे। कक्ष पूरी तरह से सुनसान था जैसे सदियों से वहां कोई भी न आया हो।
"ये मैं कहाँ पहुँच गया? मैंने ऐसे किसी किले के बारे में कभी भी नही सुना।" ब्रह्मेश के मन में अनचाहा सा डर भरने लगा। हालांकि वह बहुत साहसी था परन्तु इस समय न जाने क्यों उसकी छठी इंद्री उसे जोर जोर से अशुभ संकेत दे रही थी।
"तुम वहीं आये हो जहां तुम्हारा आना तय था पुत्र! कई वर्षों से मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा हूँ।" कक्ष में एक भयानक स्वर गूँजा। जिसे सुनकर ब्रह्मेश बुरी तरह सिहर गया फिर भी स्वयं के डर पर काबू रखते हुए वह आवाज की दिशा में बढ़ा।
"तुम कौन हो? ये कौन सा स्थान है? मैं तो मणिभद्र के पहाड़ों पर था फिर यहां कैसे आ गया?" ब्रह्मेश की हैरानी बढ़ती जा रही थी।
"मैं कौन हूँ? नही.. मैं कुछ भी नही हूँ, मैं निराकार हूँ परन्तु मैं ईश्वर नही हूँ फिर भी मैं ही ईश्वर हूँ हाहाहा.." ब्रह्मेश को जोर जोर से हँसने की आवाज सुनाई दी, इस आवाज से उसका डर बढ़ता जा रहा रहा था। "यह स्थान कहीं भी नही है और हर जगह है! तुम यहाँ आये हो क्योंकि यही तुम्हारी नियति है पुत्र!" एक बार फिर कक्ष में वही स्वर गूँजा।
"क..कौन हो तुम? मेरे सामने आओ!" ब्रह्मेश डर से कांपते हुए हकलाकर बोला।
"अभी तो बताया मैं कुछ भी नही हूँ! मैं तुम्हारे सामने ही हूँ। आओ अपने भाग्य को स्वीकार करो।" कहता हुआ वह फिर से अट्ठहास करने लगा।
न जाने उस स्वर में कैसा आकर्षण था जो ब्रह्मेश को अपनी ओर खींचता गया, ब्रह्मेश के पांव न चाहते हुए भी उस दिशा में बढ़ने लगे। उसकी पलकें एक क्षण को झपकी और फिर उसके आसपास का दृश्य ही बदल गया। वह अनगिनत शवों के बीच खड़ा था, वहां से भीषण दुर्गंध आ रही थी जिस कारण उसने अपने नाक कसकर पकड़े हुए थे। उसकी आंखों के सामने गहरा अंधेरा छाता जा रहा था, वह किसी तरह अपने होश सम्भालने की कोशिश कर रहा था। अंधेरे में भी उसे सबकुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा था, सामने भयावह तरीके से कटी-फ़टी लाशें दिखाई दे रही थीं। किसी की आँखे बाहर लटकी हुई थी, तो किसी की अंतड़िया बाहर झूल रही थी, कोई बिना किसी दाग के मरा हुआ पड़ा था तो किसी के बदन पर हजारों जख्म थे। यह देखते ही ब्रह्मेश का हृदय कांप उठा।
"हे महाकाल! ये कैसी परीक्षा ले रहे हैं आप? यह स्थान तो किसी नरक से कम नही है।" ब्रह्मेश हाथ जोड़ते हुए प्रार्थना करने लगा। अब उसे लगने लगा था कि इस बार उसे किसी खोज में नही आना चाहिए था, न जाने क्यों उसका मन दुर्भावनाओं से भरा जा रहा था।
"यह महाकाल के चरणों से ही उपजी हुई शक्ति है पुत्र।" उसके सामने घने अंधेरे में से स्वर आता है प्रतीत हुआ।
"परन्तु मैं यह नही मानता। सभी प्राणियों के रक्षक उनका विनाश क्यों करेंगे?" ब्रह्मेश अपनी सारी हिम्मत जुटाकर बोला। "यह तुम्हारी कोई चाल है, बोलो कौन हो तुम सामने आओ।"
"अंत ही परम् सत्य है पुत्र! अंत ही परमसुख है। महाकाल की सत्ता अंत ही है। तुम्हें तो यह ज्ञात ही है मैं कौन हूँ?" भारी शब्दों में मुस्कान लिए स्वर में वह बोला।
"अंत ही परम् सत्य कैसे हो सकता है?" ब्रह्मेश ने यह उपदेश बहुत बार सुना था परन्तु उसका हृदय उन उत्तरों को स्वीकार नही कर रहा था।
"संसार में जो आता है उसे जाना ही है यही सत्य है परन्तु जिसके मन में जितना आतंक भरेगा, जो जितना अधिक डरेगा, दर्द से चीखेगा-चिल्लायेगा उसके चीत्कार से, उस डर से हमारी शक्तियां और बढ़ती हैं। अंत परम् सत्य इसलिए है कि केवल अंत के ही डर से प्राणी यह सब करता है और उससे ही 'अंत की शक्तियां' यानी हम शक्तिशाली होते जाते हैं।" अंधेरे कोने से डरावना स्वर उभरा। ब्रह्मेश न चाहते हुए भी उसी ओर बढ़ता चला गया।
"तुम्हारी नियति यही है, अब इसे स्वीकार करो ब्रह्मेश! अंधेरे का विस्तार करो। संसार के संतुलन में अपनी भूमिका अदा करो। तुम्हारा जन्म अंधेरी रात में, अंधेरे की विशुद्ध शक्ति से हुआ है। काली शक्तियों से बने होने के बाद भी तुम आज तक इससे अछूते रहे हो, इसलिए अंधेरे ने अपना विस्तार तुम्हें चुना है। तुमसे ही खुलेंगे सब द्वार….." अचानक वह स्वर तेज होने लगा। हर्ष मिश्रित चीखों से वह कक्ष भर गया, वहाँ पड़े हुए लाशों के टुकड़े, हड्डियों के ढांचे खड़े होकर नाचने लगे। ब्रह्मेश को यह सब बहुत अजीब लग रहा था, उसकी आंखें इन दृश्यों पर विश्वास नही कर पा रही थीं अचानक वहां तेज प्रकाश हुआ और फिर वहां घना अंधेरा छा गया।
ब्रह्मेश स्वयं को पहाड़ी के नीचे पाया, जहां वह हिम में दबा हुआ था, जिससे यह तय था कि वह काफी समय से यहां अचेत पड़ा हुआ है। उसे लगा शायद यह कोई दुःस्वप्न रहा होगा। इतने भयानक दृश्यों के बारे में सोचकर ही उसका रोम रोम सिहर गया। वह मन ही मन महाकालेश्वर प्रभु शिव के सहस्त्र नाम जपने लगा।
उठकर वह घाटी की दिशा में बढ़ा जहां नदी जमकर रुक सी गयी थी। परन्तु न जाने क्यों अचानक से उसे ठंड लगना कम हो गया, उसने अपने गर्म वस्त्रों को उतार फेंका परन्तु फिर भी उसे ठंडी का एहसास तक नही हो रहा था। अत्यंत ठंडी हिम भी उसे सामान्य ठंडी लग रही थी, वह इसे ईश्वर का प्रताप समझा और वहां से आगे अपनी खोज में निकल गया।
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"हमने कर दिखाया स्वामी!" वीर हर्षोल्लास से नराक्ष के सामने झुककर प्रणाम करते हुए बोला।
"यह शक्ति उससे कहीं ज्यादा है जितना तुमने बताया था वीर! यह तो अंधेरे की कुंजी है, अब इन समस्त शक्तियों का स्वामी मैं हूँ! सिर्फ मैं… हाहाहा…." आज नराक्ष के खुशी की कोई सीमा नही थी।
"अब उस तुच्छ जीव ग्रेमन की हमारे समक्ष कोई गिनती नही है स्वामी! आप कहें तो मैं युद्ध का ऐलान कर दूं।" सुपीरियर लीडर उत्साहित होकर बोला।
"अरे धीरज धरो नराधमों! मृत्यु के बाद भी मरने-मारने के लिए इतनी अधीरता उचित नही।" नराक्ष कुटिल मुस्कान लिए हुए बोला। सुपीरियर लीडर को कुछ समझ न आया किंतु नराक्ष की बातें सुनकर वीर के चेहरे पर शैतानी मुस्कुराहट उभरी।
"तुम्हें पता है कि तुम्हें क्या करना है?" नराक्ष वीर की तरफ देखते हुए बोला।
"जी अवश्य! मैंने ऐसा प्रबंध कर दिया है कि वह स्वयं के इस रूप को न देख पाए, वरन उसी रूप को देखे जिसमें वह यहां आया था और मैं ऐसा प्रबंध कर रहा हूँ कि वह शीघ्र ही उस क्षेत्र में पहुँचे जहां से हम उसे अपने नियंत्रण में कर उससे सभी शक्तियां ले सकें।" वीर कुटिल मुस्कान लिए चापलूसी भरे स्वर में बोला।
"हम तुमसे अति प्रसन्न हुए है वीर!" नराक्ष खुश होते हुए बोला। इस समय भी वह इतना भयानक लग रहा था कि उसको इस स्थिति देखकर भी किसी कमजोर हृदय वाले को हृदयाघात आ जाता।
"और ग्रेमन…!" सुपीरियर लीडर ने कुछ बोलना चाहा पर नराक्ष ने उसे काट दिया।
"अब हमारे पास अंधेरे की कुंजी है सुपीरियर लीडर!" नराक्ष क्रोधावेश में बोला। "वह विशुद्ध अंधेरे की शक्ति से बना हुआ, अंधेरे से जन्मा हुआ है, उसकी शक्तियों से हम संसार में बेरोकटोक आतंक मचा सकते हैं। हम उन शक्तियों का प्रयोग इस प्रकार करेंगे कि संसार का हर जीव हमसे आतंकित होगा फिर हम स्वयं ही ईश्वर हो जाएंगे।" अट्ठहास करता हुआ नराक्ष बोला। उसकी लाल आँखे खुशी से दहक रही थीं।
"अंधेरे के ईश्वर सिर्फ आप हैं स्वामी!" वीर नराक्ष के समक्ष झुकते हुए बोला।
"अब इस संसार में जितना आतंक फैला सकते हो फैलाओ! जितना दर्द दे सकते हो दो। लोगो में जितना अधिक भय होगा, उनकी आत्मा जितना अधिक चीत्कार करेगी। हमें उतनी ही ऊर्जा मिलेगी हाहाहा… जाओ।" भयानक अट्ठहास करता हुआ नराक्ष बोला। " बाहर की दुनिया के लिए अंधेरे के द्वार तुम सबके लिए खुले हुए हैं।" उसकी बात सुनकर उसके पक्ष के सभी प्राणी वहां एकत्रित होने लगे।
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"यह क्या हो रहा है? मुझे लग रहा है जो मैं हूँ, वो मैं नही हूँ?" ब्रह्मेश नदी को पार करता हुआ बोला। अब तक उसे थकान आनी चाहिए थी, कब से उसने जल तक ग्रहण नही किया था परन्तु उसे अपने अंदर एक नवउर्जा महसूस हो रही थी। अपना संदेह दूर करने के लिए उसने हिम के शीशे समान चमकने वाले श्वेत टुकड़े में झाँका, उसे अपने प्रतिबंध के बजाए वह टुकड़ा ही स्याह दिखने लगा, ब्रह्मेश घबराकर उसे अपने से दूर फेक दिया।
"आखिर हो क्या रहा है ये?" नदी के किनारे चलता हुआ वह एक चट्टान पर जाकर बैठ गया, चट्टान की सतह चिकनी होने के कारण उसपर बर्फ नही जमा हुआ था। ब्रह्मेश अपनी यात्रा के बारे में विचार रहा था। साथ ही वह महादेव से प्रार्थना कर रहा था कि उसकी और उसके परिवार यानी आश्रम निवासियों पर दया करें उनकी रक्षा करें।
अचानक ही वह चट्टान टूटने लगी। चट्टान के दूसरे ओर गहरी खाई थी, चट्टान टूटकर तेजी से गिरने लगी। गिरते हुए ब्रह्मेश के मन में एक वाक्यांश गूँजने लगा। "अंत ही परम सत्य है।" हवा के सायें सायें के साथ यह वाक्य बार-बार गूँजने लगा, उसने स्वयं की नियति को महाकाल पर छोड़ दिया और अपने अंत को स्वीकार कर तीव्र गति से नीचे की ओर गिरता गया। नीचे जम चुकी नदी पर गिरने का स्वर सुनाई दिया जिस कारण ऊपर की बर्फ टूटकर नीचे बह रहे पानी में से भी छपाक की तेज ध्वनि आई।
उस जल से कोई मानवाकृति बाहर निकली, वह आकर हवा में कुछ ऊपर रुक गया और गौर से इस स्थान को देखने लगा। उसकी लाल आंखे दहक रही थी, हाथ में स्याहियां विस्मृत होकर नृत्य कर रही थी। शरीर पर स्याह लिबास था जिसमें बाएं कंधे से कमर तक एक रेखा खींची हुई थी, जो सीने पर वक्ष के मध्यस्थल को छूते हुए वृत्त के आकार में घूमकर पुनः उन रेखाओं से मिल जा रही थी। यह पूरी आकृति एक ओमेगा की तरह थी, उसने स्वयं को चकित होकर देखा जैसे वह कुछ भूल गया हो।
"विस्तार…!" फुसफुसाते हुए उसके मुंह से यही शब्द निकले।
क्रमशः…....
Kaushalya Rani
25-Nov-2021 10:14 PM
Very nice
Reply
Barsha🖤👑
25-Nov-2021 06:17 PM
अद्भुत लेखन आपका..बहुत खूब
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🤫
19-Jul-2021 09:20 PM
वेरी नाइस....क्या बात है...?
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